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नाटक-एकाँकी >> सवाल और स्वप्न

सवाल और स्वप्न

कृष्ण बलदेव वैद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :78
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1506
आईएसबीएन :81-7028-385-x

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प्रस्तुत है मौलिक नाटक..

Sawal Aur Swapan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कृष्ण बलदेव वैद का हर नया नाटक न केवल जिन्दगी की एक नयी स्थिति को सामने लाता है, बल्कि उसकी प्रस्तुति भी बिलकुल नए ढंग से करता है। बहुप्रशंसित ‘भूख आग है’—जिसमें साम्यवाद द्वारा उठाई गई एक केन्द्रीय समस्या को आज की भूमिका में देखने का प्रयास किया गया है—और ‘हमारी बुढ़िया’ की ही परम्परा में यह नाटक एक आधुनिक स्त्री का समस्या को—जिसका एक पति और एक प्रेमी भी है गहरी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उधेड़ता और फिर उसे यथार्थवादी अंजाम तक पहुंचाता है। इसमें उलझे हुए स्त्री मन के सभी सवाल मानो स्वतन्त्र पात्र बनकर प्रकट होते हैं—और यह भी नाट्यकला में एक नया प्रयोग है।
कृष्ण बलदेव वैद का यह नाटक एक नयी जमीन तोड़ता है।

पात्र


वन्दना
सवाल-1
परवेज़
मोहन
सवाल-2


(रात। आधा चाँद। असंख्य तारे। सन्नाटा। किसी शहर के पार्क में एक बेन्च पर बैठी एक बांकी उदास औरत, बिस्तर से अभी-अभी उठ कर आयी हुई।)

वन्दना : पहले कभी यहां नहीं आई....कल्पना में भी नहीं....शायद....स्वप्न में भी नहीं...आई होती तो कुछ तो अब तक कौंध ही गया होता....याद में...अधूरे की कोई करवट...ख़ामोशी की कोई सनसनाहट...भीतर का कोई भय....किसी सितारे की कपकपी...किसी ख़याल की लाश...इस कैफ़ियत का कोई पूर्वाभास...कुछ भी...लगता है जैसे कोई अजनबी मसख़रा मुझे इस अजनबी  आलम में अकेली बिठाकर खुद कहीं और जा बैठा हो....कहीं ऊपर....जहां से वह सबकुछ देख रहा हो...वर्ना मैं इस वक्त अपने बिस्तर में बुझी पड़ी होती...अपने ही जैसी दूसरी बेसुमार उदास औरतों की तरह...अपने साथ सोए पड़े मोहन से अलग....वह अब भी वहीं सोया पड़ा होगा...बेख़बर...बेहोश....बेख़्वाब...अगर किसी तरह से उसे खबर हो जाए कि मैं इस वक्त इस आलम में बैठी यह सब बोल-सोच रही हूँ तो वह क्या करेगा....इस ख़्याल से मुझे कोई खौफ़ महशूस नहीं हुआ...क्या इस वक्त मैं मोहन से...उसके खौफ़ से...अपने आप से...आज़ाद हूँ ?...आजाद !

(उठकर आकाश को अपनी आँखों से बुहार लेने के बाद अपने हाथों को यूँ निहारती है जैसे किसी आईने में अपनी वह सूरत देख रही हो जो उसने पहले कभी न देखी हो।)

मैं ...वन्दना...श्रीमती वन्दना गुप्त...श्रीमती वन्दना गुप्ता...या शायद गुप्त वन्दना.....पहले कभी मैंने इस आईने में शायद ही झाँका हो...अपने...आपको...अपने नाम को...उलट-पलट कर शायद ही देखा सुना हो...यह कमाल इसी आलम का...इस वक्त मैं श्रीमती नहीं...श्रीमती गुप्ता नहीं...वन्दना गुप्ता भी नहीं...वन्दना भी नहीं,..। इस वक्त मैं गुप्त हूँ...गुप्ता नहीं...गुप्त !
बेन्च पर लेट जाती है। पेट के बल। ठोड़ी को बेन्च के बाजू पर टिका कर। प्रकाश उसके चेहरे पर।)
यह आलम...और इसमें इस समय मेरा होना...किसी अजनबी मसख़रे के मज़ाक का नतीजा नहीं...मेरा अपनी ही किसी गुप्त मनोकामना के जादू का कमाल होगा...ऐसा कमाल पहले कभी क्यों नहीं हुआ...इस सवाल को यहीं सुला देना चाहिए....(लोरी) सोज़ा राजदुलारे सो जा...सो जा...सोजा मीठे सपने आएँ....सो...जा...सो...जा

(गुनगुनाते गुनगुनाते खुद सोने को ही हो रही होती है किसी को सामने खड़ा देख कर चौंक कर खड़ी हो जाती है।)

तुम कौन ?
सवाल-1 : मैं वही जिसे तुम लोरी सुनाकर सुला रही थी। सवाल। तुम्हारा सवाल।
वन्दना : ओ ! तुमने तो मुझे चौंका ही दिया !
सवाल-1 : और तुमने मुझे सुला ही दिया होता अगर तुम्हें खुद नींद न आ गई होती तो।
वन्दना : तुम यहाँ क्यों ?
सवाल-1 तुमसे यह पूछने के लिए कि तुम पहले कभी यहाँ क्या नहीं आईं ?
वन्दना : सही सवाल तो यह होता कि मैं आज यहाँ क्यों चली आई ?
सवाल-1 : मैं सही और सीधे सवाल पूछने वाला सवाल नहीं।
वन्दना : तुम जो कोई भी हो, मैं तुम्हारे सवाल के जवाब में यही कह सकती हूँ कि काश मुझे मालूम होता।
सवाल-1 : अगर तुम्हें मालूम होता तो तुम क्या करतीं ?
वन्दना : शायद पछताती कि पहले यहाँ क्यों नहीं आई।
सवाल-1 पछता तो अब भी सकती हो।
वन्दना : पछता तो अब भी रही हूँ।
सवाल-1 मालूम करना चाहती हो कि तुम पहले कभी यहाँ क्यों नहीं आईं ?
वन्दना : नहीं। हरगिज नहीं।
सवाल-1 : लेकिन क्यों नहीं ?
वन्दना : मालूम कर लेने से मेरी यातना में कोई कमी नहीं होगी।
सवाल-1 : तो तुम अपनी यातना को कम करना चाहती हो ?
(वन्दना ख़ामोश)
तो तुम्हें यह आलम अच्छा लग रहा है ?
वन्दना : हाँ। बहुत अच्छा। बहुत ही अच्छा।

(आँखें मूँद लेती है।)

सवाल-1 : अपने बिस्तर से बेहतर ?
वन्दना : (आँखें खोल कर) ज़मीन का मुक़ाबला आसमान से मत करो।
सवाल-1 : दहशत महसूस नहीं हो रही ?
वन्दना : दहशत महसूस हो रही है, इसीलिए तो अच्छा लग रहा है।
सवाल-1 : बावजूद इस बात के कि मोहन यहाँ मौजूद नहीं।
वन्दना : बावजूद नहीं, इसी बात के कारण। शायद।
सवाल-1 : बावजूद इस सम्भावना के कि इस आलम में कुछ भी हो सकता है।
वन्दना : बावजूद नहीं, इसी सम्भावना के कारण, शायद।
सवाल-1 : शायद ?
वन्दना : हाँ, शायद।
सवाल-1 : तो तुम पूरी तरह से यह स्वीकार कर लेने में संकोच कर रही हो कि मोहन के यहाँ मौजूद न होने, मेरे यहाँ मौजूद होने और किसी अनहोनी की सम्भावना के मौजूद होने के कारण ही इस आलम में होना तुम्हें अच्छा लग रहा है ?
वन्दना : शायद।
सवाल-1 :  ‘शायद’ की शय्या क्या ज़रूरी है ?
वन्दना : शायद।
सवाल-1 : इस आलम में भी ?
वन्दना : इस आलम में तो शायद और भी ? लेकिन यह है क्या ?
बताओ तो !
सवाल-1 : तुम्हें मालूम नहीं ?
वन्दना : होता तो पूछती क्यों ?
सवाल-1 : बहुत सी बातें हमें मालूम होती हैं लेकिन जब तक हम दूसरों से उनके बारे में पूछें नहीं, हमें यक़ीन नहीं आता कि वे हमें मालूम हैं।
वन्दना : तुम बहुत पेचीदा हो।
सवाल-1 : तुम भी इतनी सरल नहीं दिखाई देती हो।
वन्दना : तुम इतने पेचीदा क्यों हो ?
सवाल-1 : पेचीदा होना हर सवाल का धर्म माना गया है। हर असली सवाल का।
वन्दना : तो तुम असली सवाल हो !
सवाल-1 : हर सवाल असली होने की कोशिश करता है, असली होने का दावा करता है।
वन्दना : तो तुम असली सवाल नहीं हो ?
सवाल-1 : इस सवाल का सामना नहीं करूँगा।
वन्दना : बता क्यों नहीं देते कि यह आलम असल में है क्या ?


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